Wednesday, August 19, 2009

Monday, June 8, 2009

मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली

मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं
चार दिन की ये रफ़ाक़त जो रफ़ाक़त भी नहीं
उमर् भर के लिए आज़ार हुई जाती है
जिन्दगी यूं तो हमेशा से परेशान सी थी
अब तो हर सांस गिरांबार हुई जाती है
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत कभी हरजाई है

प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं
तू किसी और के दामन की कली है लेकिन
मेरी रातें तेरी ख़ुश्बू से बसी रहती हैं
तू कहीं भी हो तेरे फूल से आरिज़ की क़सम
तेरी पलकें मेरी आंखों पे झुकी रहती हैं

तेरे हाथों की हरारत तेरे सांसों की महक
तैरती रहती है एहसास की पहनाई में
ढूंढती रहती हैं तख़ईल की बाहें तुझको
सर्द रातों की सुलगती हुई तनहाई में

तेरा अल्ताफ़-ओ-करम एक हक़ीक़त है मगर
ये हक़ीक़त भी हक़ीक़त में फ़साना ही न हो
तेरी मानूस निगाहों का ये मोहतात पयाम
दिल के ख़ूं का एक और बहाना ही न हो

कौन जाने मेरी इम्रोज़ का फ़र्दा क्या है
क़ुबर्तें बढ़ के पशेमान भी हो जाती है
दिल के दामन से लिपटती हुई रंगीं नज़रें
देखते देखते अंजान भी हो जाती है

मेरी दरमांदा जवानी की तमाओं के
मुज्महिल ख्वाब की ताबीर बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्ता भी है, वीराने भी
मेरा हासिल मेरी तक़दीर बता दे मुझको

तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है

तेरा मेरा झगड़ा क्या जब इक आँगन की मिट्टी है
अपने बदन को देख ले छूकर मेरे बदन की मिट्टी है

भूखी प्यासी भटक रही है दिल में कहीं उम्मीद् लिये
हम और तुम जिस में खाते थे उस बर्तन की मिट्टी है
ग़ैरों ने कुछ् ख़्वाब दिखाकर नींद चुरा ली आँखों से
लोरी दे दे हार गई जो घर आँगन की मिट्टी है

सोच समझकर तुम ने जिस के सभी घरोन्दे तोड़ दिये
अपने साथ जो खेल रहा था उस बचपन की मिट्टी है

चल नफ़रत को छोड़ के 'अंजुम' दिल के रिश्ते जोड़ के 'अंजुम'
इस मिट्टी का क़र्ज़ उतारें अपने वतन की मिट्टी है

आँखों में जी मेरा है इधर यार देखना

आँखों में जी मेरा है इधर यार देखना
आशिक़ का अपने आख़री दीदार देखना

कैसा चमन के हम से असीरों को मना है
चाक-ए-क़फ़स से बाग़ की दीवार देखना

आँखें चुराईओ न टुक अब्र-ए-बहार से
मेरी तरफ़ भी दीदह-ए-ख़ँबार देखना

अए हम-सफ़र न आब्ले को पहुँचे चश्म-ए-तर
लगा है मेरे पाओं में आ ख़ार देखना

होना न चार चश्म दिक उस्स ज़ुल्म-पैशाह से
होशियार ज़ीन्हार ख़बरदार देखना

सय्यद दिल है दाग़-ए-जुदाई से रश्क-ए-बाग़
तुझ को भी हो नसीब ये गुलज़ार देखना

गर ज़मज़मा यही है कोई दिन तो हम-सफ़ीर
इस फ़स्ल ही में हम को गिरिफ़्तार देखना

बुल-बुल हमारे गुल पे न गुस्ताख़ कर नज़र
हो जायेगा गले का कहीं हार देखना

शायद हमारी ख़ाक से कुछ हो भी अए नसीम
ग़िर्बाल कर के कूचा-ए-दिलदार देखना

उस ख़ुश-निगाह के इश्क़ से परहेज़ कीजिओ 'मीर'
जाता है लेके जी ही ये आज़ार देखना

जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया

जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मेरे साया न गया
दिल के तईं आतिश-ऐ-हिज्राँ से बचाया न गया
घर जला सामने पर हम से बुझाया न गया

क्या तुनक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह
इक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया
दिल जो दीदार का क़ायेल की बहोत भूका था
इस सितम-कुश्ता से यक ज़ख्म भी खाया न गया
शहर-ऐ-दिल आह अजब जाए थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया

तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक

तुम न आये एक दिन का वादा कर दो दिन तलक
हम पड़े तड़पा किये दो दो पहर दो दिन तलक

दर्द-ए-दिल अपना सुनाता हूँ कभी जो एक दिन
रहता है उस नाज़नीं को दर्द-ए-सर दो दिन तलक

देखते हैं ख़्वाब में जिस दिन किसू की चश्म-ए-मस्त
रहते हैं हम दो जहाँ से बेख़बर दो दिन तलक

गर यक़ीं हो ये हमें आयेगा तू दो दिन के बाद
तो जियें हम और इस उम्मीद पर दो दिन तलक

क्या सबब क्या वास्ता क्या काम था बतलाइये
घर से जो निकले न अपने तुम "ज़फ़र" दो दिन तलक

रुलाया था बहुत तुमने, जो मेरे दिल को तोड़ा था

रुलाया था बहुत तुमने, जो मेरे दिल को तोड़ा था
जमाने भर की नफरत को, मेरे हिस्से में छोड़ा था ।
बनाया महल सपनों का, सजाया मन के आँगन को
लगाई थी जो चिंगारी, जलाके सबको छोड़ा था ।
मेरे होने का दम भरके, निभाई गैर से उल्फत
बचाकर मुझसे ही नजरें, भरोसा मेरा तोड़ा था ।
सजाया था बहारों से, मेरे दुश्मन के दामन को
निभाने का किया वादा, मगर वादों को तोड़ा था ।
बिखरकर सूखती डाली, नहीं अब कोई भी माली
था बंधन जो ये सांसों का, उसे तूने ही तोड़ा था।

दिल की मेरी बेक़रारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

दिल की मेरी बेक़रारी मुझ से कुछ पूछो नहीं
शब की मेरी आह-ओ-ज़ारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

बार-ए-ग़म से मुझ पे रोज़-ए-हिज्र में इक इक घड़ी
क्या कहूँ है कैसी भारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

मेरी सूरत ही से बस मालूम कर लो हम-दमो
तुम हक़ीक़त मेरी सारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

शाम से ता-सुबह जो बिस्तर पे तुम बिन रात को
मैं ने की अख़्तर-शुमारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

ऐ "ज़फ़र" जो हाल है मेरा करूँगा गर बयाँ
होगी उन की शर्म-सारी मुझ से कुछ पूछो नहीं

माँगा था जिसे हम ने दिन रात दुआओं में

ख़ुशबू की तरह आया वो तेज़ हवाओं में
माँगा था जिसे हम ने दिन रात दुआओं में

तुम छत पर नहीं आये मैं घर से नहीं निकला
ये चाँद बहुत लटका सावन कि घटाओं में

इस शहर में इक लड़की बिल्कुल है ग़ज़ल जैसी
फूलों की बदन वाली ख़ुशबू सी अदाओं में

दुनिया की तरह वो भी हँसते हैं मुहब्बत पर
डूबे हुये रहते थे जो लोग वफ़ाओं में

ख़्वाब इस आँखों से अब कोई चुरा कर ले जाये

ख़्वाब इस आँखों से अब कोई चुरा कर ले जाये
क़ब्र के सूखे हुये फूल उठा कर ले जाये

मुंतज़िर फूल में ख़ुश्बू की तरह हूँ कब से
कोई झोंकें की तरह आये उड़ा कर ले जाये

ये भी पानी है मगर आँखों का ऐसा पानी
जो हथेली पे रची मेहंदी उड़ा कर ले जाये

मैं मोहब्बत से महकता हुआ ख़त हूँ मुझ को
ज़िन्दगी अपनी किताबों में दबा कर ले जाये

ख़ाक इंसाफ़ है नाबीना बुतों के आगे
रात थाली में चिराग़ों को सजा कर ले जाये

तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा

अगर तलाश करूँ कोई मिल ही जायेगा
मगर तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा

तुम्हें ज़रूर कोई चाहतों से देखेगा
मगर वो आँखें हमारी कहाँ से लायेगा

ना जाने कब तेरे दिल पर नई सी दस्तक हो
मकान ख़ाली हुआ है तो कोई आयेगा

मैं अपनी राह में दीवार बन के बैठा हूँ
अगर वो आया तो किस रास्ते से आयेगा

तुम्हारे साथ ये मौसम फ़रिश्तों जैसा है
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा

ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ

अभी इस तरफ़ न निगाह कर मैं ग़ज़ल के पलकें सँवार लूँ
मेरा लफ़्ज़ लफ़्ज़ हो आईना तुझे आईने में उतार लूँ

मैं तमाम दिन का थका हुआ तू तमाम शब का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ

अगर आसमाँ की नुमाइशों में मुझे भी इज़्न-ए-क़याम हो
तो मैं मोतियों की दुकान से तेरी बालियाँ तेरे हार लूँ

कई अजनबी तेरी राह के मेरे पास से यूँ गुज़र गये
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई तेरा नाम लेके पुकार लूँ

वो भी आख़िर मिल गया अब क्या करें

अब किसे चाहें किसे ढूँढा करें
वो भी आख़िर मिल गया अब क्या करें

हल्की हल्की बारिशें होती रहें
हम भी फूलों की तरह भीगा करें

आँख मूँदे उस गुलाबी धूप में
देर तक बैठे उसे सोचा करें

दिल मुहब्बत दीन दुनिया शायरी
हर दरीचे से तुझे देखा करें

घर नया कपड़े नये बर्तन नये
इन पुराने काग़ज़ों का क्या करें

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं
तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं

हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है
जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं

सबा से करते हैं ग़ुर्बत-नसीब ज़िक्र-ए-वतन
तो चश्म-ए-सुबह में आँसू उभरने लगते हैं

वो जब भी करते हैं इस नुत्क़-ओ-लब की बख़ियागरी
फ़ज़ा में और भी नग़्में बिखरने लगते हैं

दर-ए-क़फ़स पे अँधेरे की मुहर लगती है
तो "फ़ैज़" दिल में सितारे उतरने लगते हैं

क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं

नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
क़रीब उन के आने के दिन आ रहे हैं

जो दिल से कहा है जो दिल से सुना है
सब उन को सुनाने के दिन आ रहे हैं

अभी से दिल-ओ-जाँ सर-ए-राह रख दो
के लुटने लुटाने के दिन आ रहे हैं

टपकने लगी उन निगाहों से मस्ती
निगाहें चुराने के दिन आ रहे हैं

सबा फिर हमें पूछती फिर रही है
चमन को सजाने के दिन आ रहे हैं

चलो "फ़ैज़" फिर से कहीं दिल लगायेँ
सुना है ठिकाने के दिन आ रहे हैं

तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

तुम आये हो न शब-ए-इन्तज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार बार गुज़री है

जुनूँ में जितनी भी गुज़री बकार गुज़री है
अगर्चे दिल पे ख़राबी हज़ार गुज़री है

हुई है हज़रत-ए-नासेह से गुफ़्तगू जिस शब
वो शब ज़रूर सर-ए-कू-ए-यार गुज़री है

वो बात सारे फ़साने में जिसका ज़िक्र न था
वो बात उनको बहोत ना-गवार गुज़री है

न गुल खिले हैं, न उनसे मिले, न मै पी है
अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

चमन में ग़ारत-ए-गुलचीँ से जाने क्या गुज़री
क़फ़स से आज सबा बेक़रार गुज़री है

शेर कहती हुई आँखें उस की

मेरे चेहरे पे ग़ज़ल लिखती गईं
शेर कहती हुई आँखें उस की

शोख़ लम्हों का पता देने लगीं
तेज़ होती हुई साँसें उस की

ऐसे मौसम भी गुज़ारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उस की

ध्यान में उस के ये आलम था कभी
आँख महताब की यादें उस की

फ़ैसला मौज-ए-हवा ने लिक्खा
आँधियाँ मेरी बहारें उस की

नीन्द इस सोच से टूटी अक्सर
किस तरह कटती हैं रातें उस की

दूर रह कर भी सदा रहती है

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया

दोनो जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

वीराँ है मैकदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास है
तुम क्या गये के रूठ गये दिन बहार के

इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज 'फ़ैज़'
मत पूछ वल-वले दिल-ए-ना-कर्दाकार के

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने

पूछ न मुझसे दिल के फ़साने
इश्क़ की बातें इश्क़ ही जाने

वो दिन जब हम उन से मिले थे
दिल के नाज़ुक फूल खिले
मस्ती आँखें चूम रही थी
सारी दुनिया झूम रही
दो दिल थे वो भी दीवाने

वो दिन जब हम दूर हुये थे
दिल के शीशे चूर हुये थे
आई ख़िज़ाँ रंगीन चमन में
आग लगी जब दिल के बन में
आया न कोई आग बुझाने

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ

ज़िन्दगी ये तो नहीं, तुझको सँवारा ही न हो
कुछ न कुछ हमने तिरा क़र्ज़ उतारा ही न हो

कू-ए-क़ातिल की बड़ी धूम है चलकर देखें
क्या ख़बर, कूचा-ए-दिलदार से प्यारा ही न हो

दिल को छू जाती है यूँ रात की आवाज़ कभी
चौंक उठता हूँ कहीं तूने पुकारा ही न हो

कभी पलकों पे चमकती है जो अश्कों की लकीर
सोचता हूँ तिरे आँचल का किनारा ही न हो

ज़िन्दगी एक ख़लिश दे के न रह जा मुझको
दर्द वो दे जो किसी तरह गवारा ही न ‘हो

शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहाँ
न मिले भीक3 तो लाखों का गुज़ारा ही न हो

हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

हम से भागा न करो दूर ग़ज़ालों की तरह
हमने चाहा है तुम्हें चाहने वालों की तरह

ख़ुद-ब-ख़ुद नींद-सी आँखों में घुली जाती है
महकी महकी है शब-ए-ग़म तेरे बालों की तरह

और क्या इस से ज़्यादा कोई नर्मी बरतूँ
दिल के ज़ख़्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह

और तो मुझ को मिला क्या मेरी मेहनत का सिला
चंद सिक्के हैं मेरे हाथ में छालों की तरह

ज़िन्दगी जिस को तेरा प्यार मिला वो जाने
हम तो नाकाम रहे चाहने वालों की तरह

रात के ख्वाब सुनाए किस को रात के ख्वाब सुहाने थे|

रात के ख्वाब सुनाए किस को रात के ख्वाब सुहाने थे
धुंधले धुंधले चेहरे थे पर सब जाने पहचाने थे

जिद्दी वहशी अल्हड़ चंचल मीठे लोग रसीले लोग,
होंठ उन के ग़ज़लों के मिसरे आंखों में अफ़साने थे

ये लड़की तो इन गलियों में रोज़ ही घूमा करती थी,
इस से उन को मिलना था तो इस के लाख बहाने थे

हम को सारी रात जगाया जलते बुझते तारों ने,
हम क्यूं उन के दर पे उतरे कितने और ठिकाने थे

वहशत की उन्वान हमारी इन में से जो नार बनी,
देखेंगे तो लोग कहेंगे 'इन्शा' जी दीवाने थे

सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ

सावन-भादों साठ ही दिन हैं फिर वो रुत की बात कहाँ
अपने अश्क मुसलसल बरसें अपनी-सी बरसात कहाँ

चाँद ने क्या-क्या मंज़िल कर ली निकला, चमका, डूब गया
हम जो आँख झपक लें सो लें ऎ दिल हमको रात कहाँ

पीत का कारोबार बहुत है अब तो और भी फैल चला
और जो काम जहाँ को देखें, फुरसत दे हालात कहाँ
क़ैस का नाम सुना ही होगा हमसे भी मुलाक़ात करो
इश्क़ो-जुनूँ की मंज़िल मुश्किल सबकी ये औक़ात कहाँ

राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे
राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे

उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से
मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे

बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा
धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे

छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर गई
इक गजल शौक से मैंने कभी गाया था जिसे

दे गया घाव वो ऐसे कि जो भरते ही नहीं
अपने सीने से कभी मैंने लगाया था जिसे

होश आया तो हुआ यह कि मेरा इक दुश्मन
याद फिर आने लगा मैंने भुलाया था जिसे

वो बड़ा क्या हुआ सर पर ही चढ़ा जाता है
मैंने काँधे पे `कुँअर' हँस के बिठाया था जिसे

हाय ! किस वक़्त मुझे कब का गिला याद आया

आप आए तो ख़याल-ए-दिल-ए नाशाद आया
कितने भूले हुए जख़्मों का पता याद आया
आप के लब पे कभी अपना भी नाम आया था
शोख नज़रों से मुहब्बत का सलाम आया था
उम्र भर साथ निभाने का पयाम आया था
आपको देख के वह अहद-ए-वफ़ा याद आया
रुह में जल उठे बजती हुई यादों के दिए
कैसे दीवाने थे हम आपको पाने के लिए
यूँ तो कुछ कम नहीं जो आपने एहसान किए
पर जो मांगे से न पाया वो सिला याद आया
आज वह बात नहीं फिर भी कोई बात तो है
मेरे हिस्से में यह हलकी-सी मुलाक़ात तो है
ग़ैर का हो के भी यह हुस्न मेरे साथ तो है
हाय ! किस वक़्त मुझे कब का गिला याद आया

जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात, क्या करें ?

इतनी हसीन, इतनी जवाँ रात, क्या करें ?
जागे हैं कुछ अजीब से जज़्बात, क्या करें ?
पेड़ों के बाजुओं में महकती है चांदनी
बेचैन हो रहे हैं ख़यालात क्या करें ?
साँसों में घुल रही है किसी साँस की महक
दामन को छू रहा है कोई हाथ क्या करें ?
शायद तुम्हारे आने से यह भेद खुल सके
हैराँ हैं कि आज नई बात क्या करें ?

ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए

हम इन्तेज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक
ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए
यह इन्तेज़ार भी एक इम्तेहान होता है
इसी से इश्क का शोला जवान होता है

यह इन्तेज़ार सलामत हो और तू आए
बिछाए शौक़ के सजदे वफ़ा की राहों में

खड़े हैं दीद की हसरत लिए निगाहों में
कुबूल दिल की इबादत हो और तू आए

वो ख़ुशनसीब हो जिसको तू इन्तेख़ाब करे
ख़ुदा हमारी मौहब्बत को कामयाब करे

जवाँ सितार-ए-क़िस्मत हो और तू आए
ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए

ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है

ये चाँदनी भी जिन को छूते हुए डरती है
दुनिया उन्हीं फूलों को पैरों से मसलती है

शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है

लोबान में चिंगारी जैसे कोई रख दे
यूँ याद तेरी शब भर सीने में सुलगती है

आ जाता है ख़ुद खींच कर दिल सीने से पटरी पर
जब रात की सरहद से इक रेल गुज़रती है

आँसू कभी पलकों पर ता देर नहीं रुकते
उड़ जाते हैं ये पंछी जब शाख़ लचकती है

ख़ुश रंग परिंदों के लौट आने के दिन आये
बिछड़े हुए मिलते हैं जब बर्फ़ पिघलती है

मैकदे में कोई छोटा न बड़ा, जाम उठा

मान मौसम का कहा, छाई घटा, जाम उठा
आग से आग बुझा, फूल खिला, जाम उठा

पी मेरे यार तुझे अपनी क़सम देता हूँ
भूल जा शिकवा-गिला, हाथ मिला, जाम उठा

हाथ में जाम जहाँ आया मुक़द्दर चमका
सब बदल जायेगा क़िस्मत का लिखा, जाम उठा

एक पल भी कभी हो जाता है सदियों जैसा
देर क्या करना यहाँ, हाथ बढा़, जाम उठा

प्यार ही प्यार है सब लोग बराबर हैं यहाँ
मैकदे में कोई छोटा न बड़ा, जाम उठा

मैकदे में कोई छोटा न बड़ा, जाम उठा

मान मौसम का कहा, छाई घटा, जाम उठा
आग से आग बुझा, फूल खिला, जाम उठा

पी मेरे यार तुझे अपनी क़सम देता हूँ
भूल जा शिकवा-गिला, हाथ मिला, जाम उठा

हाथ में जाम जहाँ आया मुक़द्दर चमका
सब बदल जायेगा क़िस्मत का लिखा, जाम उठा

एक पल भी कभी हो जाता है सदियों जैसा
देर क्या करना यहाँ, हाथ बढा़, जाम उठा

प्यार ही प्यार है सब लोग बराबर हैं यहाँ
मैकदे में कोई छोटा न बड़ा, जाम उठा

छोड़ो मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूँ अछा हूँ

क्यूँ मेरा दिल शाद नहीं है क्यूँ ख़ामोश रहा करता हूँ
छोड़ो मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूँ अछा हूँ

मेरा दिल ग़मग़ीँ है तो क्या ग़मग़ीं ये दुनिया है सारी
ये दुख तेरा है न मेरा हम सब की जागीर है प्यारी

तू गर मेरी भी हो जाये दुनिया के ग़म यूँ ही रहेंगे
पाप के फंदे, ज़ुल्म के बंधन अपने कहे से कट न सकेंगे

ग़म हर हालत में मोहलिक है अपना हो या और किसी का
रोना धोना, जी को जलाना यूँ भी हमारा, यूँ भी हमारा

क्यूँ न जहाँ का ग़म अपना लें बाद में सब तदबीरें सोचें
बाद में सुख के सपने देखें सप्नों की ताबीरें सोचें

बे-फ़िक्रे धन दौलत वाले ये आख़िर क्यूँ ख़ुश रहते हैं
इनका सुख आपस में बाँतें ये भी आख़िर हम जैसे हैं

हम ने माना जंग कड़ी है सर फूटेंगे, ख़ून बहेगा
ख़ून में ग़म भी बह जायेंगे हम न रहें, ग़म भी न रहेगा

इस धूप किनारे पल दो पल

ये धूप किनारा शाम ढले,
मिलते हैं दोनो वक़्त जहाँ,
जो रात ना दिन, जो आज ना कल,
पल भर को अमर, पल भर में धुआं

इस धूप किनारे पल दो पल
होठों कि लपक बाहों कि खनक
ये मेल हमारा झूठ ना सच क्यों रार करें,
क्यों दोष धरें किस कारण झूठी बात करें
जब तेरी समंदर आंखों में
इस शाम का सूरज डूबेगा
सुख सोयेंगे घर दर वाले
और राही अपनी राह लेगा

तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

याद की राहगुज़र जिसपे इसी सूरत से
मुद्दतें बीत गयीं हैं तुम्हें चलते-चलते
खत्म हो जाय जो दो-चार कदम और चलो
मोड़ पड़ता है जहाँ दश्त-ए-फ़रामोशी का
जिसके आगे न कोई मैं हूँ, न कोई तुम हो

साँस थामें हैं निग़ाहें, कि न जाने किस दम
तुम पलट आओ, गुज़र जाओ, या मुड़ के देखो
गरचे वाकिफ़ हैं निगाहें, के ये सब धोखा है
गर कहीं तुमसे हम-आग़ोश हुई फिर से नज़र
फूट निकलेगी वहाँ और कोई राहगुज़र
फिर इसी तरह जहां होगा मुकाबिल पैहम
साया-ए-ज़ुल्फ़ का और ज़ुंबिश-ए-बाजू का सफ़र

दूसरी बात भी झूठी है, कि दिल जानता है
यहाँ कोई मोड़, कोई दश्त, कोई राह नहीं
जिसके परदे में मेरा माह-ए-रवां डूब सके
तुमसे चलती रहे ये राह, यूँ ही अच्छा है
तुमने मुड़ कर भी न देखा तो कोई बात नहीं!

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

अनगिनत सदियों के तारीक बहिमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये
जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये
जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मग़र क्या कीजे
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग

‘नई ज़मीं, नया आस्मां, नई दुनिया’

यह नर्म नर्म हवा झिलमिला रहे हैं चिराग़
तेरे ख़्याल की खुश्बू से बस रहे हैं दिमाग़

दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूं आई
की जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चिराग

तमाम शोला-ए-गुल है तमाम मौज-ए-बहार
कि ता-हद-ए-निगाह-ए-शौक़ लहलहाते हैं बाग़

‘नई ज़मीं, नया आस्मां, नई दुनिया’
सुना तो है कि मोहब्बत को इन दिनों है फ़राग

दिलों में दाग़-ए-मोहब्बत का अब यह आलम है
कि जैसे नींद में दूबे होन पिछली रात चिराग़

फिराक़ बज़्म-ए-चिरागां है महफ़िल-ए-रिन्दां
सजे हैं पिघली हुई आग से छलकते अयाग़

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे

उसी तरह से हर इक ज़ख़्म खुशनुमा देखे
वो आये तो मुझे अब भी हरा-भरा देखे
गुज़र गये हैं बहुत दिन रिफ़ाक़ते-शब में
इक उम्र हो गयी चेहरा वो चांद-सा देखे

मेरे सुकूत से जिसको गिले रहे क्या-क्या
बिछड़ते वक़्त उन आंखों का बोलना देखे

तेरे सिवा भी कई रंग ख़ुशनज़र थे मगर
जो तुझको देख चुका हो वो और क्या देखे

बस एक रेत का ज़र्रा बचा था आंखों में
अभी तलक जो मुसाफ़िर का रास्ता देखे

उसी से पूछे कोई दश्त की रफ़ाकत जो
जब आंख खोले पहाड़ों का सिलसिला देखे

तुझे अज़ीज़ था और मैंने उसको जीत लिया
मेरी तरफ़ भी तो इक पल ख़ुदा देखे

अक्स उसीका आया होगा।

घर में वो जब भी आया होगा
खुशबू से घर महका होगा।

उसने जुल्फ़ को झटका होगा
प्यार का सावन बरसा होगा।

साँसों में है उसकी खुश्बू
इस रह से वो गुज़रा होगा।

कलियाँ सारी मुस्काती हैं
उनपे यौवन आया होगा।

झन झन झन झनकार करे दिल
उसने का साज़ बजाया होगा।

मुझको सँवरता देखके दर्पण
मन ही मन शरमाया होगा।

दिल के दर्पण में ऐ 'देवी'
अक्स उसीका आया होगा।

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है

आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है

आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है

रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा य'अनि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है

तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है

वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

इन काली सदियों के सर से जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
इन भूकी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फ़रमाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इन्सानों की क़ीमत कुछ भी नहीं
इन्सानों की इज्जत जब झूठे सिक्कों में न तोली जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को ना बेचा जाएगा
चाहत को ना कुचला जाएगा, इज्जत को न बेचा जाएगा
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनिया शर्माएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आख़िर ये भूक के और बेकारी के
टूटेंगे कभी तो बुत आख़िर दौलत की इजारादारी के
जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीक न मांगेगा
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सुली न दिखाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

फ़आक़ों की चिताओ पर जिस दिन इन्सां न जलाए जाएंगे
सीने के दहकते दोज़ख में अरमां न जलाए जाएंगे
ये नरक से भी गंदी दुनिया, जब स्वर्ग बनाई जाएगी

वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की ख़ातिर जुग जुग से हम सब मर मर के जीते हैं
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम ज़हर के प्याले पीते हैं
वो सुबह न आए आज मगर, वो सुबह कभी तो आएगी

वो सुबह कभी तो आएगी
चाँद मद्धम है आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है

दूर वादी में दूधिया बादल,झुक के परबत को प्यार करते हैं
दिल में नाकाम हसरतें लेकर,हम तेरा इंतज़ार करते हैं

इन बहारों के साए में आ जा,फिर मोहब्बत जवां रहे न रहे
ज़िन्दगी तेरे ना-मुरादों पर,कल तलक मेहरबां रहे न रहे

रोज़ की तरह आज भी तारे,सुबह की गर्द में न खो जाएं
आ तेरे गम़ में जागती आंखें,कम से कम एक रात सो जाएं

चाँद मद्धम है आस्मां चुप है
नींद की गोद में जहां चुप है
सोचता हूँ कि मुहब्बत से किनारा कर लूँ
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ

सोचता हूँ कि मुहब्बत है जुनून-ए-रसवा
चंद बेकार-से बेहूदा ख़यालों का हुजूम
एक आज़ाद को पाबंद बनाने की हवस
एक बेगाने को अपनाने की सइ-ए-मौहूम

सोचता हूँ कि मुहब्बत है सुरूर-ए-मस्ती
इसकी तन्वीर में रौशन है फ़ज़ा-ए-हस्ती

सोचता हूँ कि मुहब्बत है बशर की फ़ितरत
इसका मिट जाना, मिटा देना बहुत मुश्किल है
सोचता हूँ कि मुहब्बत से है ताबिंदा हयात
आप ये शमा बुझा देना बहुत मुश्किल है

सोचता हूँ कि मुहब्बत पे कड़ी शर्त हैं
इक तमद्दुन में मसर्रत पे बड़ी शर्त हैं

सोचता हूँ कि मुहब्बत है इक अफ़सुर्दा सी लाश
चादर-ए-इज़्ज़त-ओ-नामूस में कफ़नाई हुई
दौर-ए-सर्माया की रौंदी हुई रुसवा हस्ती
दरगह-ए-मज़हब-ओ-इख़्लाक़ से ठुकराई हुई

सोचता हूँ कि बशर और मुहब्बत का जुनूँ
ऐसी बोसीदा तमद्दुन से है इक कार-ए-ज़बूँ

सोचता हूँ कि मुहब्बत न बचेगी ज़िंदा
पेश-अज़-वक़्त की सड़ जाये ये गलती हुई लाश
यही बेहतर है कि बेगाना-ए-उल्फ़त होकर
अपने सीने में करूँ जज़्ब-ए-नफ़रत की तलाश

और सौदा-ए-मुहब्बत से किनारा कर लूँ
दिल को बेगाना-ए-तरग़ीब-ओ-तमन्ना कर लूँ
ज़ख़्म जो आप की इनायत है इस निशानी को नाम क्या दे हम
प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को नाम क्या दे हम

आप इल्ज़ाम धर गये हम पर एक एहसान कर गये हम पर
आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को नाम क्या दे हम

आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चाँदनी समझा
भूल ही भूल जिस की आदत है इस जवानी को नाम क्या दे हम

रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा
बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला बेज़ुबानी को नाम क्या दे हम
ये शीशे ये सपने ये रिश्ते ये धागे
किसे क्या ख़बर है कहाँ टूट जायें
मुहब्बत के दरिया में तिनके वफ़ा के
न जाने ये किस मोड़ पर डूब जायें

अजब दिल की बस्ती अजब दिल की वादी
हर एक मोड़ मौसम नई ख़्वाहिशों का
लगाये हैं हम ने भी सपनों के पौधे
मगर क्या भरोसा यहाँ बारिशों का

मुरादों की मंज़िल के सपनों में खोये
मुहब्बत की राहों पे हम चल पड़े थे
ज़रा दूर चल के जब आँखें खुली तो
कड़ी धूप में हम अकेले खड़े थे

जिन्हें दिल से चाहा जिन्हें दिल से पूजा
नज़र आ रहे हैं वही अजनबी से
रवायत है शायद ये सदियों पुरानी
शिकायत नहीं है कोई ज़िन्दगी से
उस मोड़ से शुरू करें फिर ये ज़िन्दगी
हर शय जहाँ हसीन थी, हम तुम थे अजनबी

लेकर चले थे हम जिन्हें जन्नत के ख़्वाब थे
फूलों के ख़्वाब थे वो मुहब्बत के ख़्वाब थे
लेकिन कहाँ है उन में वो पहली सी दिलकशी

रहते थे हम हसीन ख़यालों की भीड़ में
उलझे हुए हैं आज सवालों की भीड़ में
आने लगी है याद वो फ़ुर्सत की हर घड़ी

शायद ये वक़्त हमसे कोई चाल चल गया
रिश्ता वफ़ा का और ही रंगो में ढल गया
अश्कों की चाँदनी से थी बेहतर वो धूप ही

Monday, May 25, 2009

मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

ताज तेरे लिए इक मज़हर-ए-उलफत ही सही
तुम को इस वादी-ए-रँगीं से अक़ीदत ही सही
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे
बज़्म-ए-शाही में ग़रीबों का गुज़र क्या मानी
सब्त जिस राह पे हों सतवत-ए-शाही के निशाँ
उस पे उलफत भरी रूहों का सफर क्या मानी
मेरी महबूब पस-ए-पर्दा-ए-तशरीर-ए-वफ़ा
तूने सतवत के निशानों को तो देखा होता
मुर्दा शाहों के मक़ाबिर से बहलने वाली,
अपने तारीक़ मक़ानों को तो देखा होता
अनगिनत लोगों ने दुनिया में मुहब्बत की है
कौन कहता है कि सादिक़ न थे जज़्बे उनके
लेकिन उनके लिये तश्शीर का सामान नहीं
क्यूँकि वो लोग भी अपनी ही तरह मुफ़लिस थे
ये इमारत-ओ-मक़ाबिर, ये फ़ासिले, ये हिसार
मुतल-क़ुलहुक्म शहँशाहों की अज़्मत के सुतून
दामन-ए-दहर पे उस रँग की गुलकारी है
जिसमें शामिल है तेरे और मेरे अजदाद का ख़ून
मेरी महबूब! उनहें भी तो मुहब्बत होगी
जिनकी सानाई ने बक़शी है इसे शक़्ल-ए-जमील
उनके प्यारों के मक़ाबिर रहे बेनाम-ओ-नमूद
आज तक उन पे जलाई न किसी ने क़ँदील
ये चमनज़ार ये जमुना का किनारा, ये महल
ये मुनक़्कश दर-ओ-दीवार, ये महराब ये ताक़
इक शहँशाह ने दौलत का सहारा ले कर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़
मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे

आए न बालम बेदर्दी

सांझ की लाली सुलग-सुलग कर बन गई काली धूल
आए न बालम बेदर्दी मैं चुनती रह गई फूल
रैन भई, बोझल अंखियन में चुभने लागे तारे
देस में मैं परदेसन हो गई जब से पिया सिधारे
पिछले पहर जब ओस पड़ी और ठन्डी पवन चली
हर करवट अंगारे बिछ गए सूनी सेज जली
दीप बुझे सन्नाटा टूटा बाजा भंवर का शंख
बैरन पवन उड़ा कर ले गई परवानों के पंख

बरबाद मौहब्बत की दुआ साथ लिए जा

बरबाद मौहब्बत की दुआ साथ लिए जा
टूटा हुआ इक़रार-ए-वफ़ा साथ लिए जा
एक दिल था जो पहले ही तुझे सौंप दिया था
यह जान भी, ऎ जान-ए-अदा ! साथ लिए जा
तपती हुई राहों से तुझे आँच न पहुँचे
दीवानों के अश्कों की घटा साथ लिए जा
शामिल है मेरा ख़ून-ए-जिगर तेरी हिना में
यह कम हो तो अब ख़ून-ए-वफ़ा साथ लिए जा
हम जुर्म-ए-मौहब्बत की सज़ा पाएंगे तन्हा
जो तुझ से हुई हो वह ख़ता साथ लिए जा

नई दुनिया बसा लेते हैं लोग

जब भी जी चाहे नई दुनिया बसा लेते हैं लोग
एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग
याद रहता है किसे गुज़रे ज़माने का चलन
सर्द पड़ जाती है चाहत हार जाती है लगन
अब मौहब्बत भी है क्या एक तिजारत के सिवा
हम ही नादान थे जो ओढ़ा बीती यादों का कफ़न
वरना जीने के लिए सब कुछ भुला लेते हैं लोग
जाने वो क्या लोग थे जिनको वफ़ा का पास था
दूसरे के दिल पे क्या गुज़रेगी यह अहसास था
अब हैं पत्थर केसनम जिनको एहसास न ग़म
वो ज़माना अब कहाँ जो अहले दिल को रास था
अब तो मतलब के लिए नाम-ए-वफ़ा लेते हैं लोग

कहाँ से लाऊँ

जिसे तू कुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ
तेरे दिल को जो लुभाए वह सदा कहाँ से लाऊँ
मैं वो फूल हूँ कि जिसको गया हर कोई मसल के
मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं में ढल के
जो बहार बन के बरसे वह घटा कहाँ से लाऊँ
तुझे और की तमन्ना, मुझे तेरी आरजू है
तेरे दिल में ग़म ही ग़म है मेरे दिल में तू ही तू है
जो दिलों को चैन दे दे वह दवा कहाँ से लाऊँ
मेरी बेबसी है ज़ाहिर मेरी आहे बेअसर से
कभी मौत भी जो मांगी तो न पाई उसके दर से
जो मुराद ले के आए वह दुआ कहाँ से लाऊँ
जिसे तू कुबूल कर ले वह अदा कहाँ से लाऊँ

अजब है दिल का आलम

रात भी है कुछ भीगी- भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम-मद्धम
तुम आओ तो आँखें खोले, सोई हुई पायल की छम-छम
किसको बताएँ, कैसे बताएँ, आज अजब है दिल का आलम
चैन भी है कुछ हलका-हलका, दर्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम
तपते दिल पर यूँ गिरती है, तेरी नज़र से प्यार की शबनम
जलते हुए जंगल पर जैसे, बरखा बरसे रुक-रुक थम-थम
रात भी है कुछ भीगी-भीगी, चांद भी है कुछ मद्धम-मद्धम
होश में थोड़ी बेहोशी है, बेहोशी में होश है कम-कम
तुझ को पाने की कोशिश में दोनों जहाँ से खो गए हम
चैन भी है कुछ हलका-हलका, दर्द भी है कुछ मद्धम-मद्धम

हर एक दिल की दुआएँ बुला रही हैं तुम्हें

ये वादियाँ ये फ़ज़ाएँ बुला रही हैं तुम्हें
ख़ामोशियों की सदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तरस रहे हैं जवाँ फूल होंठ छूने को
मचल-मचल के हवाएँ बुला रही हैं तुम्हें
तुम्हारी जुल्फ़ों से ख़ुशबू की भीख लेने को
झुकी-झुकी-सी घटाएँ बुला रही हैं तुम्हें
हसीन चम्पई पैरों को जबसे देखा है
नदी की मस्त अदाएँ बुला रही हैं तुम्हें
मेरा कहा न सुनो, उनकी बात तो सुन लो
हर एक दिल की दुआएँ बुला रही हैं तुम्हें

एक तू ही नहीं है

हर चीज़ ज़माने की जहाँ पर थी वहीं है,
एक तू ही नहीं है
नज़रें भी वही और नज़ारे भी वही हैं
ख़ामोश फ़ज़ाओं के इशारे भी वही हैं
कहने को तो सब कुछ है, मगर कुछ भी नहीं है
हर अश्क में खोई हुई ख़ुशियों की झलक है
हर साँस में बीती हुई घड़ियों की कसक है
तू चाहे कहीं भी हो, तेरा दर्द यहीं है
हसरत नहीं, अरमान नहीं, आस नहीं है
यादों के सिवा कुछ भी मेरे पास नहीं है
यादें भी रहें या न रहें किसको यक़ीं है

जब चाहा था

जब चाहा था मैंने
तुम्हे अपना बनाना
तुम दूर हो गई मुझसे
जब चाहा मैंने
तुम्हे बताऊँ करता हूँ मैं तुमसे प्यार
तुम सामने ही न आई
जब भी चाहा तुमसे बातें करूँ
तुम मुझे दिखाई ही न पड़ी
और जब तुम्हे न देखने की
चाहत पैदा की
तुम मेरी आंखो में बस गई
इतने दिनों बाद
कितने ही पलों को इन्तेजार में
बिताने के बाद
जब चाहा तुम्हे भूला दूँ
तुम वापस मेरी जिंदगी में आ गई
अब जब चाहता हूँ
मैं तुमसे बातें न करूँ
तुम ख़ुद ही मुझसे बातें करने लगी हो
एक बार फिर तुमने
उलझा दिया है मुझे
तुम्हे खोने या पाने के सवाल में...

तस्वीर.....

किसी ने पूछा था कभी मुझसे कि बताऊँ मैं उसकी तस्वीर कैसी है...
पहली बार देखा था उसे मैंने जब
लगा उसने ओढ़ रखा है सारा आकाश बदन पे अपने,
खुले बाल उसके बादलो से लग रहे थे,
और उसकी हंसी किसी अधखिले गुलाब सी,
नदियों में भी चंचलता क्या होगी,
पर्वत का भी वजूद क्या होगा,
उसके चेहरे कि चमक के आगे सच सूरज भी फीका होगा,
चाँद में शीतलता भी कम है,
रात की शांति भी कम है,
और आँखों में गहराई है इतनी,
कि सामने उसके समुन्दर भी कम है....
किसी कविता में भी इतने शब्द न होंगे
किसी तस्वीर में भी इतना रंग न होगा,
जो बांध सके खूबसूरती को उसके...
और सच सामने उसके जन्नत भी जमीं का धुल होगा,
गर है खुदा कहीं तो अब आके वही बताये मुझे,
कि क्या कोई तस्वीर भी उसकी,
उसके हुस्न से ज्यादा सुन्दर होगा?

ख्वाब....

कल रात नींद में एक ख्वाब देखा
किसी जन्नत में एक आफताब देखा
खूबसूरती उसकी बयाँ नहीं कर सकता मैं
खोजा तो बहुत पर चर्चे को एक भी शब्द नहीं देखा
सोंचा एक तस्वीर बना कर रखूँगा दिल के पास
पर एक भी रंग उसके लिए नहीं लाजवाब देखा
कल रात नींद में एक ख्वाब देखा......
उस हुस्न परी को मेरे पास देखा
उसका मुस्कुराना, थोडा नजरें झुका कर शरमाना देखा
दिल में कुछ बातें थी उसकी,
जो मैंने उसकी आँखों में देखा
उसका मुझपर ऐतबार और प्यार देखा
कल रात नींद में एक ख्वाब देखा.....
और आज जागती आँखों से उसे हकीकत में देखा
फर्क इतना था कल रात नींद में ख्वाब देखा
और आज वो खुद मुझे एक हसीं ख्वाब दिखा....

क्यों आख़िर क्यों....

क्यों आख़िर क्यों
तुझसे इतनी मोहब्बत करता हूँ मैं
खुदा को मानता नही
और फ़िर भी
तुझे खुदा की मन्नत मानता हूँ मैं
इन्तजार से नफरत है मुझे सबसे ज्यादा
और फ़िर भी
हर पल तेरे इन्तजार में जीता हूँ मैं
क्यों आख़िर क्यों
तुझसे इतनी मोहब्बत करता हूँ मैं
तन्हाई से डरता हूँ बहुत
और फ़िर भी
तन्हा ही जीता हूँ मैं
चाहता हूँ तुझे दूर कर दूँ ख्यालों से अपनी
और फ़िर भी
तुझे हर वक्त याद करता हूँ मैं
आँखों से तो अश्क बहना चाहते है बहुत
और फ़िर भी
जोर-जोर से हमेशा हँसता हूँ मैं
क्यों आख़िर क्यों
जानते हुए तू मुझसे प्यार नही करती
और फ़िर भी
तुझसे इतनी.... इतनी मोहब्बत करता हूँ मैं...

मैं और मेरी तन्हाई...

मैं और मेरी तन्हाई
अक्सर ये बातें करते है
तुम होती तो ऐसा होता
तुम होती तो वैसा होता
पर सच कहूँ?
मैं और मेरी तन्हाई
कभी कोई बातें नही करते
मैं कभी तन्हा होता ही कहाँ
तुम्हारी याद मुझे कभी
तन्हा होने ही नही देती है
तुम्हारी याद कभी
तेरी याद आने नही देती है
वरना......
मैं और मेरी तन्हाई भी
अक्सर बातें करते

मुझे तुझसे प्यार है...

जिन में हो तेरी खुशी
उन जख्मों का भी मुझे इन्तेजार है,
करने को सांझ तेरी रौशन
मैं ख़ुद जलने को भी तैयार हूँ
अगर हो बसी खुशबू तेरी
पतझर भी मेरी बहार है
तेरे खुशियों पर तो हक नही मेरा
तेरे ग़मों पर तो मेरा अधिकार है
एक गुजारिश है
तू न कभी बदलना जीवन के किसी मोड़ पर
मुझे तो तेरे इसी रूप से प्यार है
तू करती है नफरत मुझसे
नफरत ही किया करना,
हो सके तो हद से बढ़कर करना
मुझे तो तेरे नफरत से भी बे-इन्तिहाँ प्यार है
गर तू कभी बदल गई
तो शायद मुश्किल होगी मेरे लिए
किसी दिन अगर तू मेरे पास आई दोबारा
तो मैं मरने के लिए अभी कहाँ तैयार हूँ
मैंने तो कसम ली है तेरे प्यार में ही जीने की
मुझे तो तेरा अपनी अन्तिम साँसों तक इन्तेजार है
तेरी खुशी के लिए जख्म
तेरी रौशनी के लिए जलने को
खुशबू अगर हो तो पतझर
तेरे ग़मों से भी मुझे प्यार है
हाँ मुझे सिर्फ़ तुझसे, सिर्फ़ तुझसे ही प्यार है....

Saturday, May 23, 2009

तुम्हारे नाज किसी और से तो क्या उठते
खता मुआफ ये पापड़ हमीं ने बेले हैं
- अन्जुम फौकी
अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठा के हाथ
देखा जो मुझको छोड़ दिए मुस्कुरा के हाथ
- वफा रामपुरी
गरज कि काट दिए जिन्दगी के दिन ऐ दोस्त
वो तेरी याद में हो या तुझे भुलाने में
- फिराक गोरखपुरी
ऐ इश्क तूने अक्सर कौमों को खा के छोड़ा
जिस घर से सर उठाया उसको बिठा के छोड़ा
- हाली
हम अक्सर दोस्तों की बेवफाई सह तो लेते हैं
मगर हम जानते हैं दिल हमारे टूट जाते हैं
- रोशन नंदा
बेवफा भी हो सितमगर भी जफा पेशा भी
हम खुदा तुम को बना लेंगे तुम आओ तो सही
- मुमताज मिर्जा
आप को भूल जायें हम इतने तो बेवफा नहीं
आप से क्या गिला करें आप से कुछ गिला नहीं
- तस्लीम फाज्ली
हमें भी दोस्तों से काम आ पड़ा यानी
हमारे दोस्तों के बेवफा होने का वक्त आया
- हरीचंद अख्तर
एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्जाम नहीं
दुनियावाले, दिलवालों को और बहुत कुछ कहते हैं
- हबीब जालब
ये खुले खुले से गेसू, इन्हें लाख तू संवारे
मेरे हाथ से संवरते, तो कुछ और बात होती
- आगा हश्र
अब ये होगा शायद अपनी आग में खुद जल जायेंगे
तुम से दूर बहुत रह कर भी क्या पाया क्या पायेंगे
- अहमद हमदानी
न जाने क्या है उस की बेबाक आंखों में
वो मुंह छुपा के जाये भी तो बेवफा लगे
- कैसर उल जाफरी
किसी बेवफा की खातिर ये जुनूं फराज कब तलक
जो तुम्हें भुला चुका है उसे तुम भी भूल जाओ
- अहमद फराज
काम आ सकीं न अपनी वफायें तो क्या करें
इक बेवफा को भूल न जायें तो क्या करें
- अख्तर शीरानी
पहलू से दिल को लेके वो कहते हैं नाज से
क्या आएं घर में आप ही जब मेहरबां न हों
- मौलाना मुहम्मद अली जौहर
तुम्हारी बेखुदी ने लाज रख ली वादाखाने की
तुम आंखों से पिला देते तो पैमाने कहां जाते
- शकील बदायूंनी
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा
- दुष्यंतकुमार
अक्ल पे हम को नाज बहुत था लेकिन ये कब सोचा था
इश्क के हाथों ये भी होगा लोग हमें समझायेंगे
- अहमद हमदानी
ऐसे मौसम भी गुजारे हम ने
सुबहें जब अपनी थीं शामें उसकी
- परवीन शाकिर
तड़पूंगा उम्र भर दिल-ए-मरहूम के लिए
कम्बख्त नामुराद लड़कपन का यार था
- बेखुद देहलवी
बराये नाम सही कोई मेहरबान तो है
हमारे सर पे भी होने को आसमान तो है
- अकील शादाब
इस तरह सताया है परेशान किया है
गोया कि मुहब्बत नहीं अहसान किया है
- अफजल फिरदौस
गम मुझे, हसरत मुझे, वहशत मुझे, सौदा मुझे
एक दिल देके खुदा ने दे दिया क्या क्या मुझे
- सीमाब अकबराबादी
दुश्मन को भी सीने से लगाना नहीं भूले
हम अपने बुजुर्गों का जमाना नहीं भूले
- सागर आजमी


कैसे कह दूं कि मुलाकात नहीं होती है
रोज मिलते हैं मगर बात नहीं होती है
- शकील बदायूंनी
ये आरजू ही रही कोई आरजू करते
खुद अपनी आग में जलते जिगर लहू करते
- हिमायत अली शायर
ये शबे फिराक ये बेबसी, हैं कदम-कदम पे उदासियां
मेरा साथ कोई न दे सका, मेरी हसरतें हैं धुआं-धुआं
- हसन रिजवी
हमको तो गर्दिश-ए-हालात पे रोना आया
रोने वाले तुझे किस बात पे रोना आया
- सैफुद्दीन सैफ
हर शम्आ बुझी रफ्ता रफ्ता हर ख्वाब लुटा धीरे - धीरे
शीशा न सही पत्थर भी न था दिल टूट गया धीरे - धीरे
- कैसर उल जाफरी

Friday, May 22, 2009

चेहरे बदलने का हुनर मुझमैं नहीं ,
दर्द दिल में हो तो हसँने का हुनर मुझमें नहीं,
मैं तो आईना हुँ तुझसे तुझ जैसी ही मैं बात करू,
टूट कर सँवरने का हुनर मुझमैं नहीं ।
चलते चलते थम जाने का हुनर मुझमैं नहीं,
एक बार मिल के छोड जाने का हुनर मुझमैं नहीं ,
मैं तो दरिया हुँ , बेहता ही रहा ,
तुफान से डर जाने का हुनर मुझमैं नहीं